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भारत निर्माण का डॉ. अम्बेडकर का मानवशास्त्रीय स्वप्न"

डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर, जिन्हें हम बाबासाहेब के नाम से जानते हैं, न केवल एक महान विधिवेत्ता और समाज सुधारक थे, बल्कि एक गहरे मानवशास्त्रीय दृष्टि वाले विचारक भी थे। उनका भारत के विकास और एकीकरण का दृष्टिकोण मात्र राजनीतिक या आर्थिक नहीं था, बल्कि यह सामाजिक और सांस्कृतिक संरचनाओं की गहरी समझ पर आधारित था।

जाति व्यवस्था का मानवशास्त्रीय विश्लेषण

डॉ. अम्बेडकर ने भारतीय समाज की सबसे बड़ी चुनौती, जाति व्यवस्था, का मानवशास्त्रीय विश्लेषण किया। उन्होंने इसे मात्र सामाजिक भेदभाव का रूप नहीं माना, बल्कि एक ऐसी संस्था के रूप में देखा जो भारतीय समाज की संरचना को गहराई से प्रभावित करती है। 

जाति व्यवस्था..सामाजिक असमानता को बनाए रखती है

उन्होंने अपनी पुस्तक "जाति का विनाश" (Annihilation of Caste, 1936) में जाति व्यवस्था को एक ऐसी प्रणाली के रूप में वर्णित किया जो न केवल सामाजिक असमानता को बनाए रखती है, बल्कि मानवीय गरिमा को भी नष्ट करती है। 

उन्होंने तर्क दिया कि जाति व्यवस्था भारत के विकास के लिए एक बड़ी बाधा है, क्योंकि यह लोगों को उनकी क्षमता के अनुसार योगदान करने से रोकती है। (बी.आर. अम्बेडकर, "जाति का विनाश", 1936)

 सभी को समान अवसर मिले तो ही...देश का विकास संभव 

डॉ. अम्बेडकर ने भारत के विकास के लिए सामाजिक न्याय और समता को अनिवार्य माना। उनका मानना था कि जब तक समाज में सभी लोगों को समान अवसर नहीं मिलेंगे, तब तक देश का विकास संभव नहीं है। 

उन्होंने संविधान में सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को शामिल करने पर जोर दिया, ताकि सभी नागरिकों को समान अधिकार और अवसर मिल सकें। उन्होंने "राज्य और अल्पसंख्यक" में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा पर विशेष ध्यान दिया। (बी.आर. अम्बेडकर, "राज्य और अल्पसंख्यक", 1947)

सांस्कृतिक एकीकरण के लिए शिक्षा और जागरूकता अहम

डॉ. अम्बेडकर ने भारत के सांस्कृतिक एकीकरण और राष्ट्रीय एकता को महत्वपूर्ण माना। उन्होंने विभिन्न सांस्कृतिक समूहों के बीच संवाद और समझ को बढ़ावा देने की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने यह भी माना कि राष्ट्रीय एकता के लिए सभी नागरिकों को अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने का अधिकार होना चाहिए। उन्होंने "पाकिस्तान या भारत का विभाजन" में भारत के विभाजन पर अपने विचार व्यक्त किए। (बी.आर. अम्बेडकर, "पाकिस्तान या भारत का विभाजन", 1940)

 दलितों और वंचित समुदायों के लिए शिक्षा के ज्यादा अवसर मिलें..

डॉ. अम्बेडकर ने शिक्षा और जागरूकता को सामाजिक परिवर्तन के लिए महत्वपूर्ण उपकरण माना। उन्होंने दलितों और अन्य वंचित समुदायों के लिए शिक्षा के अवसरों को बढ़ाने पर जोर दिया। उनका मानना था कि शिक्षा लोगों को अपने अधिकारों के बारे में जागरूक करती है और उन्हें सामाजिक और आर्थिक रूप से सशक्त बनाती है। उन्होंने "शूद्र कौन थे?" में शिक्षा के महत्व को दर्शाया। (बी.आर. अम्बेडकर, "शूद्र कौन थे?", 1946)

डॉ. अम्बेडकर का भारत के विकास और एकीकरण का मानवशास्त्रीय दृष्टिकोण आज भी प्रासंगिक है। उन्होंने हमें दिखाया कि सामाजिक और सांस्कृतिक असमानताओं को दूर किए बिना भारत का विकास संभव नहीं है। उनका सपना एक ऐसे भारत का निर्माण करना था, जहां सभी नागरिकों को समान अधिकार और अवसर मिलें। हमें उनके विचारों को अपनाकर एक समतामूलक और न्यायपूर्ण समाज का निर्माण करना चाहिए।

🖋 प्रोफेसर अजीत जायसवाल 

मानव विज्ञान विभाग प्रमुख 

डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (म.प्र.)


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