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भगवान महावीर के अनुसार मनुष्य अपने जीवन में जो धारण करे वही धर्म है। धर्म दिखावा, रूढ़ी, प्रदर्शन किसी के प्रति घृणा नहीं एवं एक दूसरे के प्रति भेदभाव नहीं, बल्कि मानव में मानवीयता के गुणों की विकास शक्ति है।

महावीर स्वामी की साधना आध्यात्मिक चिंतन और मनन का पर्याय है। भगवान महावीर ने जिस जीवन को दर्शाया है, वह वर्तमान परिवेश में सामाजिक समस्याओं का अहिंसात्मक समाधान है। उनकी वाणी ने मानव की दृष्टि को विहंगम बनाया। 

वे महामृत्यु के ध्याता तीर्थंकर थे, जिनके आदर्श और उपदेश आज भी जीवन प्रेरणा का स्रोत बने हुए हैं। भगवान महावीर के पुण्य-स्मरण से हम निश्चित रूप से गौरान्वित होते हैं। महावीर विश्व के महानतम युग प्रवर्तकों में एक हैं। वे पहले इतिहास पुरूष हैं,

जिन्होंने मुक्ति के मार्ग पर बढ़ने के लिए स्त्रियों को भी प्रेरित किया। उनके चिन्तन ने न केवल भारतीय जनमानस को आलोकित किया बल्कि संसार के समस्त प्राणियों के कल्याण का मार्ग भी प्रशस्त किया। भगवान महावीर भारतीय संस्कृति के प्रणेता थे। भारतीय संस्कृति से उनका जीवन दर्शन जुड़ा हुआ है। 

वे जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर है। उनसे पहले 23 तीर्थंकर और हुए है। भगवान महावीर ने जो भी कहा वह सर्वोदयी था। उनके सिद्धांतों को देखे तो वे विश्व कल्याण और बंधुत्व की भावना पर आधारित है। जनमानस के अत्याधिक निकट होने के कारण उन्होंने अपनी बात सरल भाषा में ही व्यक्त की। छुआछूत अथवा जात-पात से उनका कोई संबंध नहीं था। 

उनके मुख्य उपदेशों में जियो और जीने दो, सभी प्राणी महान है, मनुष्य की पहचान जन्म से नहीं कर्म से होती है, आत्मा ही अपने गुणों का विकास कर परमात्मा बनती है, शामिल है। 

अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, तप, त्याग और संयम ही जीवन के मूलाधार तत्व है, जैसी शिक्षाएं मानव के संपूर्ण पक्ष को छू लेने वाली हैं। भगवान महावीर की शिक्षा जीवन की आधार-शिला है, जिससे प्रत्येक प्राणी सुख और शांति से रह सकता है।

महावीर के दो पक्ष हैं, आध्यात्मिक एवं सामाजिक। पहले पक्ष में कठोर महाव्रत शामिल है, जिनको अंगीकार कर आत्मा परमात्मा पद प्राप्त होता है। दूसरे पक्ष के संदर्भ में महावीर ने जो दृष्टि दी, वह आज के युग में भी उतनी ही उपयोगी और शाश्वत सत्य है, जितनी ढाई हजार वर्ष पहले थी। 

महावीर का जब अभ्युदय हुआ, तब देश कर्मकाण्ड, वर्गभेद और मानवीय अत्याचार की स्थिति से पीड़ित था। भगवान महावीर ने इसके लिये आवाज उठाई, लेकिन इसके पूर्व स्वयं के जीवन को तप, त्याग, संयम और प्राणी कल्याण की भावना में तपाया। 

भगवान महावीर ने अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकांत की एक ऐसी संरचना प्रदान की, जो किसी भी सामाजिक व्यवस्था को सुचारू रूप से संचालित करने के लिये थी। भगवान महावीर ने धर्म की अहिंसात्मक क्रांति की उन्होंने धर्म के आपसी भेदों के विरूद्ध आवाज उठाई तथा धर्म को सीमाओं के कठघरे से बाहर निकालकर स्थापित किया। 

भगवान महावीर ने लोक मंगल की आचरण मूलक भूमिका के व्यावहारिक सामाजिक सूत्र भी प्रतिपादित किये हैं। सृष्टि के प्राणी मात्र के प्रति जब राग-द्वेष के स्थान पर सह-अस्तित्व, मैत्री एवं करूणा की भावना जागृत होती है, तभी उसका चित्त धार्मिक बनता है। 

जब व्यक्ति दूसरों को समभाव से देखता है तो राग-द्वेष का विनाश हो जाता है। उसका मन धार्मिक हो जाता है। राग-द्वेष हीनता धार्मिक बनने की प्रथम सीढ़ी है। समस्त जीवों पर समभाव की दृष्टि रखना ही अंहिसा है।

'अहिंसा' को मानव मानसिकता से जोड़ते हुए भगवान महावीर ने कहा कि अप्रमत्त आत्मा अहिंसक है। अहिंसा से मानवीयता एवं सामाजिकता का जन्म होता है। अपरिग्रह एवं अनेकांतवाद अहिंसा से जुड़ी हुई भावनाएँ हैं। 

अपरिग्रह वस्तुओं के प्रति ममत्वहीनता का नाम है। परिग्रह की प्रवृत्ति उनकी मानवीयता का विनाश करती है। अनेकांत व्यक्ति के अहंकार को झकझोरता है। उसकी आंतरिक दृष्टि के सामने प्रश्नवाचक चिन्ह लगाता है।

इस प्रकार महावीर दर्शन मौजूदा प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था तथा वैज्ञानिक सापेक्षवादी चिन्तन के भी अनुरूप है। मानव के भीतर अशांति, उद्वेग तथा मानसिक तनावों को दूर करता है। 

यदि मानव के अस्तित्व को बरकरार रखना है तो भगवान महावीर की वाणी को आज के संदर्भ में व्याख्यायित करना होगा। हम अपने चिंतन और मनन में उदारता लाएं तथा सह-अस्तित्व की भावना को आत्मसात कर प्राणी जगत का कल्याण करने का संकल्प लें। 

लेख: प्रलय श्रीवास्तव, पूर्व संभागीय संयुक्त संचालक, जनसंपर्क विभाग, मप्र 

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