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Sagar Watch News/
  बाज़ार के खिलाडी बेहद शातिर माने जाते हैं।  वे हमेशा माल बेचने के लिए किसी न किसी उधेड़बुन में लगे रहते हैं।  उनके इशारों पर बाज़ार नित नए रूप धारण करता रहता है। कभी वह विदेशी बन जाता है तो कभी स्वदेशी। 

बाज़ार का मकसद हमेशा एक ही रहता है कैसे खरीदारों की जेब से पैसा निकलवाया जाए।  इसके लिए वह खूब आडम्बर रचता है, तरह -तरह के मुखौटे लगाकर सड़कों और मैदानों पर मेले-महफ़िल सजाता है।  खेलकूद-मनोरंजन के साधन जुटा कर लोगों को रिझाता है। 

इसी सिलसिले में एक नया चलन चला है वह है स्वदेशीवाद का। स्वदेशी-बाज़ार-उद्यमियों को बढ़ावा देने की गुहार लगाकर माल बेचने की नई विधा। देश के प्रधानमंत्री ने "वोकल फॉर लोकल" का नारा दिया। चतुर व्यवसाईयों ने इस जुमले को,भावुकता और देशप्रेम के चासनी में  पाग कर पैसा बनाने के लिए ऐसे बाज़ार सजाये, जिसमें सामान स्वदेशी के नाम पर विदेशी ही बिकता रहा। 

लेकिन उन्होंने स्वदेशी नाम के आयोजनों में ऐसी बिसात बिछाई की खरीददार अगर एक बार इनके मेलों को देखने पहुँच भर जाये तो उसकी जेब से पैसे निकलना शुरू हो जाते हैं। उसे मेला पसंद आये या ना आये पर उसकी जेब से पैसा निकलना तय है। 

जब खरीदार ऐसे मेलों को देखने अपने बच्चों-परिवार के सदस्यों के साथ पहुँचता है तो सबसे पहले उससे वाहन की पार्किंग के नाम पर मनमाने दाम वसूले जाते हैं। इसके लिए उसे गबरू जवान खड़े मिलते हैं। इनसे निपट कर जब वह मेले के प्रवेश द्वार पर पहुँचता है तो प्रवेश शुल्क लेने वाले दरोगा खड़े मिलते हैं।  यानी मेले की पहली झलक मिलने से पहले ही खरीदारों की जेब से एक बड़ा हिस्सा मेले लगाने वाले कथित देशभक्त, समाजसेवियों के जेब में जा चुका होता है। 

मेले में अन्दर पहुँचते ही सबसे पहले बच्चों को अगर  कोई चीज़ लुभाती है तो वह होती है रंग-बिरंगे बल्बों की लड़ियों से सजे, चूं-चर्र की आवाज करते, ऊंचे-ऊंचे, गगनचुम्बी और फेरे लगाते झूले होते हैं।  जिनमे बच्चे तो फिरकी लगाने या पेंगे भरने का आनंद उनमें बैठने के बाद  ही ले पाते हैं लेकिन उनके माता पिता झूलों में बैठने से पहले ही उनके दाम सुनकर घूमने लगते हैं और उनकी जेबें हिचकोले खाने लगतीं, हांफने लगतीं  हैं। 

जल्द ही मेला का फेरा लगाने के बाद उन्हें मेले में बिकने आयी वस्तुओं के हवाई कीमतों का  भी अहसास हो जाता है वो आँखे फाड़े देखते रहते हैं कि कैसे  पड़ोस की दुकान में मिलने वाला सामान भी यहाँ बड़ी ठसक के साथ अपनी असल कीमत से दोगुनी-तिगुनी बोली लगा कर  इतरा रहा है। मेले में कुछ न कुछ खरीदने के लिए उत्सुक "मन की बात"भांप कर हाथ बार -बार जेब का रुख करता है लेकिन आसमानी बोलियों को सुनकर ठिठक जाता है और बाहर से ही जेब को "अभी आता हूँ" कहकर, झूठी तसल्ली देकर लौट आता है। 

जब वह "खाली हाथ" ही या कोई छोटी-मोटी चीज खरीद कर और बच्चों की आधी-अधूरी चाहतें पूरीं करके मेले से बाहर आता है तब वह अपने मन में खुद से ही सवाल करता हुआ सा लगता है।  काश ये स्वदेशी का राग आलापने वाले व्यापारी,ये गाड़ी-घोडा से जुड़े और मेले में अंदर जाने के खर्चे न थोपते, झूलों के दाम आसमानी नहीं होने देते तो वे बच्चों की कुछ ज्यादा चाहतें पूरी कर पाते और अपनी प्रियतमा  के लिए कुछ ज्यादा नहीं तो प्रेमचंद के कहानी ईदगाह के पात्र हामिद की तरह एक छोटे से चिमटे जैसा ही कुछ सामन रुपी तोहफा खरीद कर दे पाता। 

आर्थिक गतिविधियों के जानकार बताते हैं कि सरकारों ने व्यापारियों से उनके मुनाफे में से एक निश्चित हिस्सा (Corporate Social Responsibility-CSR)यानी  समाज की बेहतरी के लिए  खर्च कराने का प्रावधान बनाया है।  लेकिन यह सब उन बाज़ीगरों के चलते संभव नहीं हो पा रहा है,जिन्हें लोग बड़े व्यापारियों के रूप में भी जानते हैं।  जो सरकारों के दवाब में समाज की बेहतरी के लिए  पैसा  खर्च करने की मजबूरी से बचने के लिए ये देशभक्ति, समाज कल्याण जैसी भावनाओं के मुखौटों में छिपे इस तरह के  आयोजन करते हैं और इन के माध्यम से अपने दान के पैसे से भी पैसे बनाने का काम करते हैं। 

अगर सबकुछ ऐसे ही चलता रहा तो कोई आश्चर्य नहीं कि लोग इन मेलों को देखकर कबीर की भाषा में कहने लगें होशियार  "बाज़ार महाठगनी-हम वहां जाके जानीं" 

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