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साहब बहादुर ने एक बार फिर एक ऐसा आदेश जारी किया है उसके जमीन स्तर अमल में आते देख पाने की चाहत में अनायास ही मुंगेरी लाल और उनके हसीं सपने के धारावाहिक की याद आ जाती है।
अब पता नहीं साहब को इस बात का अहसास है भी या नहीं कि कार्यालयों में गुटका खाने पर रोक लगी तो ज्यादातर सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों का तो कार्यालय आने के बाद काम करने का मूड ही नहीं बन पायेगा। इससे तो आम जनता ही परेशान होगी।
अधिकांश सरकारी मुलाज़िमों का ऐसा मानना है कि एक तो, गुटका मुंह में भरे काम करने पर फरियादी उनसे ज्यादा सवाल नहीं करता क्यों वे जितने भी सवाल करते हैं उनमें से अधिकाँश सवालों के जवाब गुटकावीर मुलाज़िम सिर्फ सिर हिला कर और आँखे मटकाकर ही देता है जिससे आधी से ज्यादा बातें फरियादी के समझ में ही नहीं आतीं और वह चुप रहने में ही भलाई समझता है।
गुटकावीरों का यह भी मानना है की गुटका खाने और उसे बार थूकने जाने से जहां एक और कर्मचारी का मन भी तरोताज़ा हो जाता है दूसरा सेहत के हिसाब से दिनभर चलाफिरी भी होती रहती है। इससे सुबह-शाम घूमने जाने या कसरत करने की जरूरत भी नहीं रह जाती है।
इसका एक तीसरा पहलू भी है। अगर कार्यालयों में गुटका खाने पर रोक लगाने में यह आदेश कारगर हुआ तो कार्यालयों में गुटका-वीरों द्वार दिन भर कुछ-कुछ अंतराल के बाद गुटका में जर्दा मिलाने के लिए गुटका के पाउच को हिलाने से उत्पन्न होने वाला "छिक-छिक छिक" करने वाला मधुर संगीत भी बीते दिनों के बात बन सकता है। कहा जाता है इस मधुर संगीत कि सुर लहरियां सुनकर लोग अंदाज़ लगा लेते हैं कि फलाने साहब या बाबू जी कार्यालय में ही हैं या अपनी सीट पर पहुँच गए हैं।
कलेक्टर के इस कथित गुटका विरोधी आदेश का दूसरा पहलू भी शांत जल में छोटा सा कंकड़ डाल कर कुछ देर के लिए पानी में तरंग पैदा करने जैसा लगता है। अब तो ऐसा कहा जाने लगा है कि अगर बदलाव की बात करें तो इन आदेशों के जारी होनें की सिर्फ तारीखें बदलतीं हैं लेकिन जिन बातों के बदलाव के लिए इन्हें जारी किया जाता है वे बदस्तूर जारी बनीं रहतीं है।
शालाओं और महाविद्यालयों के परिसर के बाहर स्थित चाय-पान की गुमटियों से गुटकों के बिक्री धड़ल्ले से चलती रहती है। इस सबकी एक बड़ी वजह यही बतायी जाती है की शिक्षण संस्थाओं में ज्ञान बांटने वाले, ज्ञान लेने वाले और संस्थानों को दीगर कामकाज करने वालों में एक बड़ी संख्या उन लोगों की है जिन्हें समाज "गुटकावीर " के रूप में जानता है। जिनका आचार-विचार और शिष्टाचार सभी गुटके के फांक लगाए बिना जीवंत नहीं हो पाता है।
और पते की बात यह है कि यही लोग गुटका विक्रेता गुमटी संचालकों के संकटमोचक बनकर सामने आते हैं और विक्रेताओं को ढांढस बांधते हैं कि घबराओ नहीं साहब नए -नए आये हैं हफ्ता-दो दिन की बात है फिर सबकुछ पहले जैसा ही चलेगा।
इस बार देखते हैं क्या क्या बदलता है और क्या-क्या पहले जैसे ही चलता रहता है ?
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