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सागर विश्विद्यालय में देश में महिला शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए जाने-जानी  वाली सावित्री बाई फुले की  194 वीं जयंती के मौके पर ऑनलाइन भाषण आयोजित किया गया। व्यख्यान के लिए विषय रखा गया "भारतीय ज्ञान परंपरा की सार्वभौमिक प्रासंगिकता"। जो बहुत हद तक इस विभूति के कृतित्व से विषयांतर सा पैदा करता लगा। 
वहीँ अगर इस कार्यक्रम की अधिकृत प्रेस विज्ञप्ति पर नजर डाली जाए तो पता चलेगा की सावित्री बाई फुले के जीवन और कृतित्व पर किसी भी वक्ता द्वारा एक भी  शब्द नहीं बोला गया देश की  प्राचीन ज्ञान परंपरा और युवाओं को सीखने-सिखाने की भारतीय पद्धतियों पर चर्चा अच्छी बात है पर जिसकी जयंती पर कार्यक्रम आयोजित हो रहा है कम से कम उनके बारे में भी तो श्रोताओं और विद्यार्थियों को बताया जाता तो सारा कार्यक्रम प्रसांगिक लगने लगता और कोई इसे महज लफ्फाजी कहने की जुर्रत भी नहीं कर सकता

सावित्री बाई फुले, भारतीय महिला समाज की प्रथम शिक्षिका और सामाजिक सुधारक थीं। उन्होंने महिलाओं के शिक्षा के लिए  अद्वितीय योगदान दिया।  उनके द्वारा स्थापित की गई स्कूलों और शिक्षा संस्थानों ने हजारों महिलाओं को शिक्षा का लाभ पहुंचाया। उन्होंने महिलाओं को उच्च शिक्षा के लिए प्रोत्साहित किया और उन्हें समाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से सशक्त बनाने का प्रयास किया।


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सावित्रीबाई फुले की 194वीं जयंती पर डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय में "भारतीय ज्ञान परंपरा की सार्वभौमिक प्रासंगिकता" विषय पर ऑनलाइन व्याख्यान हुआ। मुख्य वक्ता डॉ. विनय सहस्त्रबुद्धे ने भारतीय ज्ञान परंपरा की ऐतिहासिक और वर्तमान प्रासंगिकता पर विचार साझा किए।

डॉ. सहस्त्रबुद्धे ने कहा कि भारत ज्ञान, दर्शन, योग, विज्ञान, गणित, भाषा, कला और संस्कृति में सदियों से समृद्ध रहा है। हालांकि, अंग्रेजों ने हमारी पुरातन ज्ञान परंपरा को नजरअंदाज कर ‘मैकाले केंद्रित शिक्षा प्रणाली’ लागू कर दी।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के जरिये भारत ने अपनी प्राचीन ज्ञान परंपरा को पुनर्स्थापित करने की दिशा में कदम बढ़ाया है। यह आजादी के अमृत महोत्सव का सही परिचायक है, क्योंकि यह न केवल हमारी प्राचीन विरासत को संजोता है बल्कि वर्तमान जरूरतों को पूरा करने और भविष्य की चुनौतियों का सामना करने के लिए भी हमें तैयार करता है।

डॉ. सहस्त्रबुद्धे ने कहा कि पुरातन ज्ञान के आधार पर आधुनिक ज्ञान पद्धति विकसित करना आज की प्राथमिकता है। इससे हम अपने ‘स्व’ की पहचान कर सकेंगे और अपनी जड़ों से जुड़कर सही अर्थों में आत्मनिर्भर भारत की दिशा में आगे बढ़ेंगे।

इसी सिलसिले  में विश्वविद्यालय के कार्यवाहक कुलपति प्रो. वाई. एस. ठाकुर ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि हमें अपने विद्यार्थियों विशेषकर युवाओं को सीखने-सिखाने की भारतीय पद्धतियों से अवगत कराने के साथ-साथ उसमें तकनीकी का एकीकरण भी करना होगा।

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