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SAGAR WATCH / बदलते परिवेश में लोकतंत्र में "जनमत को काम से ज्यादा दाम से" प्रभावित करने का चलन बढ़ता लग रहा है। ऐसा माना जाता रहा है कि अगर कोई ऐसा काम करता है जैसे समाज सेवा का, बच्चों को पढ़ाने का या साफ़ सफाई के प्रति जागरूकता बढ़ाने का या ऐसा कोई भी काम जो जनकल्याण और जन हित में है। तो महीनों, वर्षों और दशकों की मेहनत के बाद ही उसकी समाज में पहचान बनेगी। लोग उसके काम से प्रभावित होकर उसके मुरीद बनेंगे। उसका सहयोग करने के लिए दिल से उसके साथ होने लगेंगे। तब ऐसा व्यक्ति सर्व-समाज का जन प्रतिनिधि बनने की पहली पसंद भी बन सकता है।
लेकिन इतना धैर्य आज के दौर में लोगों में देखने को नहीं मिल रहा है। वे तो रातों-रात समाज की आँखों का तारा बनने की चाह रखते हैं। नफे-नुकसान की तराजू पर तौले बिना वो कोई काम हाथ में लेने में रुचि दिखाते नजर नहीं आते हैं। उनको लगता है कि प्रलोभन के दम पर लोगों की राय को रातों-रात अपने पक्ष में किया जा सकता है। उनके पास लोगों का लाड़ला बनने के लिए महीनों वर्षों तक काम करने के लिए समय नहीं होता है। वे लोकप्रिय होने के लिए समय के इस अंतर को पाटने के लिए अपनी दौलत का सहारा लेना चाहते हैं।
इन बदलते हालातों में लोगों को भी इस विषय पर खूब चर्चा करते देखा जा सकता है कि इन नेताओं के पास आखिर इतना पैसा कहां से आता है जिसकी दम पर यह अपने पूरे क्षेत्र के जनमत को प्रभावित करने का दुस्साहस करते दिखते हैं। जो नेता जी किसी को सड़क पर चाय पिलाने के नाम पर जेब में हाथ भी नहीं डालते वे कभी अपने वेतन-भत्तों या खानदानी संपत्ति की दम पर लोगों को मुफ्त तोहफे बाँट सकते हैं इसकी कल्पना भी करना मुश्किल है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में धन के बढ़ते दखल को लेकर गंभीर चिंतन शुरू करने की जरूरत बढ़ती जा रही है। कुछ सवाल ऐसे जो कभी न कभी सबके मन में उठते हैं जैसे कि आखिर पैसों से वोट खरीद कर सत्ता पर काबिज़ होने के कथित चलन को कैसे रोका जा सकता है ? इस अभियान में जनता को क्या भूमिका निभानी पड़ेगी? मुफ्त में लाभ बांटने की सरकार की योजनाएँ आखिर देश को कहां ले जायेंगी? देश के सकारात्मक विकास के लिए राजनैतिक दलों को रेवड़ी-बांटने की संस्कृति से दूर करने की लिए जनता, मीडिया, न्यायपालिका और प्रशासनिक तंत्र को क्या भूमिका निभानी होगी?
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