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SAGAR WATCH/  मप्र सहित देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की घोषणा के साथ ही सियासी दलों के अन्दर जो उथल-पुथल का माहौल बना है वह देखने और विचार करने लायक है । इस बार ऐसा क्या हुआ है जो  सियासी दलों के बीच एक दल को छोड़कर दूसरे दल का दामन थामने का  सिलसिला बीते दिनों के मुकाबले तूफानी गति से चल रहा है और रुकने  का नाम भी  नहीं ले रहा है ।

कथित तौर पर दल-बदलू या मौकापरस्त होने के रूप में चर्चित नेताओं के द्वारा तो दूसरी पार्टियों से चुनाव के वक्त बेजा लाभ लेने की मंशा से सौदेबाजी के लिए दबाव डालने के बात तो समझ  में आती है। 

लेकिन उन नेताओं का क्या कहें जो अपनी ही पार्टी,  जिस के अंदर उन्होंने अपनी  जिन्दगी गुजार कर भरपूर  यश और सम्पदा बटोरी हो और  एन चुनावों के वक्त टिकिट मिलने पर संदेह होंने की स्थिति में अपनी ही पार्टी, के नेतृत्व की बांह मरोड़ते नजर आयें तो जरूर आश्चर्य होने लगता है और यह मुद्दा विचार योग्य हो जाता है।

जब दलबदल के इस खरपतवार से बढ़ते रुझान पर  सियासी दलों के ही अन्य धीर-गंभीर  समर्पित नेताओं, कार्यकर्ताओं और राजनीति के धुरंधर माने जाने वाले लोगों से चर्चा की तो कुछ नई ही बातें सामने आने लगीं हैं ।

पार्टी के लोगों का कहना है शीर्ष नेतृत्व को  शायद अब यह समझ में आने लगा होगा कि जो लोग पार्टी के बैनर पर कई दशकों से सत्ता का सुख भोग रहे हैं वो पार्टी के नहीं बल्कि  पद और उससे जुड़े फायदों के दीवाने होते जा रहे हैं और वे ऐसे तमाम फायदे पार्टी छोड़ने की कीमत पर भी त्यागने को तैयार नजर नहीं आ रहे हैं। अगर थोडा बहुत समझौता करने को वे तैयार भी होते हैं तो वह भी केवल अपनी सत्ता अपने बेटे-बेटियों या बीबियों के नाम सौंपे जाने की शर्त पर।

राजनीति के धुरंधरों के मुताबिक अब वह समय नहीं  रहा जब  राजनेता पार्टी की विचारधारा और उसूलों को ही ज्यादा तरजीह देते थे और  पदों  के जरियों होने वाले  धन-दौलत और यश को  भी ठुकराने से परहेज नहीं करते थे। 

इतना ही नहीं अब तो मुख्यधारा के सियासी दल भी इसी रोग से ग्रसित नजर आ रहे हैं वे भी अपनी ही पार्टी के समर्पित कार्यकर्ताओं को किनारे कर और धनी और बाहुबलियों को टिकिट देने संकोच करते नजर नहीं आते हैं। 

मीडिया में आयीं ख़बरों को देखकर जनता को भी यह बात समझ आती जा रही है कि अब पार्टियां भी विचारधाराओं की प्रतिबद्धताओं से ज्यादा नफे-नुकसान के गणित को आधार बनाकर टिकिट देने में रूचि दिखा रहीं हैं।

तो अब सवाल यह उठता है आखिर ऐसा क्या है जिसके चलते पार्टी का हर छोटा-बढ़ा नेता नैतिकता, मान-सम्मान, पार्टी की विचारधारा यहाँ तक की  पार्टी को भी ताक पर रख कर टिकिट हासिल करने के लिए बैचेन हो रहा है ? यहाँ तक कि पार्टियां भी जीत को सुनिश्चित करने की कवायद में अपनी ही पार्टी के समर्पित, ईमानदार, और कर्मठ  माने जाने वाले पुराने से पुराने कार्यकर्ताओं को भी किनारे लगाकर अपराधियों, बाहुबलियों और धनिकों को टिकिट देने में गुरेज नहीं कर रहीं हैं ?

इस सवाल लोग अपनी-अपनी समझ और अनुभव के आधार पर जवाब दे रहे हैं। कुछ लोगों को सियासी दलों के इस व्यवहार की वजह राजनीति में बढ़ती प्रतिस्पर्धा  लग रही  है, तो कुछ लोग यह मानते हैं कि सियासी दल अपनी विचारधाराओं के मुताबिक काम तो करना चाहते हैं लेकिन उसके पहले वे  येनकेन प्रकारेण सत्ता में आना चाहते हैं । 

नेताओं और सियासी दलों के चाल चलन और विचारधाराओं में देखे जा रहे बदलाव के अन्य कारणों के तुलना में बढ़ते भ्रष्टाचार को बढ़ी वजह बताने वालों की तादाद ज्यादा नजर आ रही है। कहा जा रहा है जिन नेताओं ने भ्रष्टाचार से अपार धन-दौलत जोड़ी है, सत्ता का दबदबा देखा है, सत्ता की चमक-दमक से जिनकी आंखें चौन्धियाई हैं  वे किसी भी कीमत पर उससे महरूम रहना चाहते हैं। 

यही कहानी सत्ता का सुख भोग चुके सियासी दलों की है वे सत्ता में आने और सत्ता में बने रहने के लिए खुद को उन विचारधाराओं के बंधनों में बंधा नहीं रखना चाहते हैं जिनके सहारे उन्होंने अपनी यात्रा शुरू की थी। 

उन्हें भी अगर लगता है कि समाज के बदनामशुदा बाहुबली, नेता या सजायाफ्ता अपराधी की सवारी से सत्ता तक पहुंचना आसान है तो वे पार्टी के ही समर्पित, कर्मठ, ईमानदार नेताओं को भी दरकिनार करने में  लेशमात्र भी परहेज करते नही लग रहे हैं।

इस सब को देखकर यह धारणा मजबूत होती दिख रही है कि भ्रष्टाचार के फायदे की चाह में ही बेलगाम हो रही है  दलबदल की लहर।
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