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ऋषि  दुर्वासा का श्राप अगर बीच में न आया होता तो शायद राजा दुष्यंत व शकुंतला के जीवन प्रवाह में वो उतार चढ़ाव नहीं आते जिनसे कालिदास कृत अभिज्ञान शाकुनतलम की प्रेम-कहानी एक कालजयी कृति बन गयी।  इसी कृति का नाट्य रूपांतरण राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय और रंग थिएटर फोरम के संयुक्त-तत्त्वावधान में संपन्न हुयी तीस दिवसीय अभ्यास कार्यशाला के उपरान्त स्थानीय रंगगृह रविन्द्र भवन में मंचित किया गया।  नाटक की ख़ास बात वह प्रयोग धर्मिता थी जिसके सहारे कालिदास की महान रचना अभिज्ञान शाकुंतलम के कथ्य को कहने के साथ-साथ समाज में महिलाओं की भूमिकाओं को लेकर उठ रहे सवालों से भी संवाद किया गया।  मूल कथानक को ज्यों का त्यों दिखाते हुए विदूषक व नट के हवाले से समाज में महिलाओं की भूमिका, आजादी व अधिकारों के मुद्दों को लेकर नाटक में विविध परिप्रेक्ष्य भी प्रस्तुत किये गए।  अलग-अलग कालखंडो के परिप्रेक्ष्य में कथा को घुमाए जाने के बावजूद मूल नाटक का  प्रवाह बदस्तूर बना रहा और दर्शकों को बांधे रहा। राजा दुष्यंत के प्रेम प्रसंग,शकुंतला की सखियों की इस प्रेम प्रसंग को लेकर की गयी चुहुल-बाजी और विदूषक के मसखरेपन की चासनी में पगी पटकथा दर्शको को रोमांस और हास्य का खट्टा-मीठा अहसास भी कराती रही।  नाटक में किरदार तो कम थे लेकिन कलाकारों की संख्या अधिक रही फिर भी उनके बीच में अच्छा तालमेल नजर आया। युवा कलाकारों की जोशभरी संवाद अदायगी में खनक, भावप्रवणता पर हावी रही।  पार्श्व-संगीत का उतार-चढाव और माधुर्य  दर्शकों को कहानी के मुताबिक विभिन्न कालखंडो के बीच प्रवाह्पूर्ण यात्रा कराने में सक्षम रहा। दृश्य एवं प्रकाश संयोजन भी कलात्मक रहा। संगीत संयोजन धानी गुन्देजा और अनंत गुन्देजा का रहा ।  किसी भी निर्देशक के लिए अभिज्ञान शाकुंतलम जैसी महान और भावपूर्ण  कृतियों पर युवा और नए कलाकारों के साथ काम करना आसान नहीं होता है।   नाट्य प्रस्तुति शुरू से अंत तक दर्शको को निर्देशक अर्पिता धगट की कलात्मक सोच और प्रयोग-धर्मिता से दर्शकों को रूबरू भी कराती रही।  और अंत में नाट्य गृह के अन्दर ऐसा भी महसूस होता रह की प्रस्तुति के प्रभावी होने के चलते नाट्य गृह के करीब ही चल रहे एक कोलाहलपूर्ण आयोजन की कर्कश आवाजे भीं दर्शकों की एकग्रता कम नहीं कर पायी।

नाट्य समीक्षा  -राजेश श्रीवास्तव 
SAGAR WATCH/ ऋषि  दुर्वासा का श्राप अगर बीच में न आया होता तो शायद राजा दुष्यंत व शकुंतला के जीवन प्रवाह में वो उतार चढ़ाव नहीं आते जिनसे कालिदास कृत अभिज्ञान शाकुनतलम की प्रेम-कहानी एक कालजयी कृति बन गयी।

इसी कृति का नाट्य रूपांतरण राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय और रंग थिएटर फोरम के संयुक्त-तत्त्वावधान में संपन्न हुयी तीस दिवसीय अभ्यास कार्यशाला के उपरान्त स्थानीय रंगगृह रविन्द्र भवन में मंचित किया गया।

नाटक की ख़ास बात वह प्रयोगधर्मिता थी जिसके सहारे कालिदास की महान रचना अभिज्ञान शाकुंतलम के कथ्य को कहने के साथ-साथ समाज में महिलाओं की भूमिकाओं को लेकर उठ रहे सवालों से भी संवाद किया गया।

मूल कथानक को ज्यों का त्यों दिखाते हुए विदूषक व नट के हवाले से समाज में महिलाओं की भूमिका, आजादी व अधिकारों के मुद्दों को लेकर नाटक में विविध परिप्रेक्ष्य भी प्रस्तुत किये गए।

अलग-अलग कालखंडो के परिप्रेक्ष्य में कथा को घुमाए जाने के बावजूद मूल नाटक का  प्रवाह बदस्तूर बना रहा और दर्शकों को बांधे रहा। राजा दुष्यंत के प्रेम प्रसंग,शकुंतला की सखियों की इस प्रेम प्रसंग को लेकर की गयी चुहुल-बाजी और विदूषक के मसखरेपन की चासनी में पगी पटकथा दर्शको को रोमांस और हास्य का खट्टा-मीठा अहसास भी कराती रही।

नाटक में किरदार तो कम थे लेकिन कलाकारों की संख्या अधिक रही फिर भी उनके बीच में अच्छा तालमेल नजर आया। युवा कलाकारों की जोशभरी संवाद अदायगी की  खनक, भावप्रवणता पर हावी रही।

पार्श्व-संगीत का उतार-चढाव और माधुर्य  दर्शकों को कहानी के मुताबिक विभिन्न कालखंडो के बीच प्रवाह्पूर्ण यात्रा कराने में सक्षम रहा। दृश्य एवं प्रकाश संयोजन भी कलात्मक रहा। संगीत संयोजन धानी गुन्देजा और अनंत गुन्देजा का रहा ।


किसी भी निर्देशक के लिए अभिज्ञान शाकुंतलम जैसी महान और भावपूर्ण  कृतियों पर युवा और नए कलाकारों के साथ काम करना आसान नहीं होता है।   नाट्य प्रस्तुति शुरू से अंत तक दर्शको को निर्देशक अर्पिता धगट की कलात्मक सोच और प्रयोग-धर्मिता से रूबरू भी कराती रही।

और अंत में नाट्य गृह के अन्दर ऐसा भी महसूस होता रह की प्रस्तुति के प्रभावी होने के चलते नाट्य गृह के करीब ही चल रहे एक कोलाहलपूर्ण आयोजन की कर्कश आवाजे भीं दर्शकों की एकाग्रता कम नहीं कर पायी।

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