लेख -Klien Jaiswal Rai
हृदय की भाषा शुद्धतम है, अबोध है...शब्दों में तो हेराफेरी है.. !!
कुछ कहना ज़रूरी नहीं होता, जहाँ वाकई सुन लिया जाता है..!!
जैसे सफेदी से पुती निःशब्द भीत पर, शब्द ... शुभ लाभ लिखने के प्रयास में सहारा लेते हैं, घृत सिंदूर के सम्मिश्रण का, और कुछ धुंधली सी फैल में सिमट जाना चाहते हैं...!!
.....कुछ संगीत के अनगढ़ सितारे, नृत्य की अकथ्य देवियाँ, और गीत के बिखरे बोल...कभी हरसिंगार, तो कभी गुलाब, तो कभी रातरानी तले...!!!
बयार बखान देती है, कि ईश्वर उतर चुका है घट में, या बस उतरने की ही तैयारी है।
हाँ... उतरने से पहले खूब तापता है वो.... कि भरपूर छीझे और औंटाये अंतरमन को ही शिवाला बनने की मंजूरी देता है वो सहर्ष...!!
उसकी प्रतिमाएं एक अद्भुत सम्मिश्रण से बनती हैं.... जैसे अष्टधातु हों कि तपाये लेता है वो भरपूर.....
कभी छैनी से तराशता है बहुत.. कि पाषाण की अनगढ़ शिला हो जैसे कोई....
तो कभी दाबता है वो दुसह्य मर्मान्तक पीड़ाओं के कभी न मिलने वाले छोर से.. कि जैसे कोयले को बदल देना चाहता है दुर्लभ्य हीरक में, अलभ्य वज्रमणि में....
कभी डुबो देता है गहराइयों में बेनाम बेपता करके रेत के कण सा....कि वो जानता है, मोती बन जाने की पात्रता में सहनशीलता प्रथम और अंतिम शर्त है....
.....सहना बिना कुछ कहे, बिना कुछ पूछे, बिना कुछ मांगे कि डुबोये तो मैं तेरा, तारे तो मैं तेरा....
न मैं कुछ , न मेरा कुछ....तेरा तुझको अर्पण... मेरा लागे भी कुछ... तो भला कैसे...!?!?