Film Review-आतंकी अधर्म की अनकही सच्चाई का खुलासा है Kashmir Files फिल्म
फिल्म समीक्षा : कश्मीर फाइल्स
वर्ष 2010में सपरिवार 3 दिन कश्मीर रुका था जिस होटल में था उसका नाम था होटल वजीर एक रात रुककर सुबह काउंटर पर मैनेजर के रूप में बैठे मालिक के बेटे से बातों बातों में बात हुई तो पता चला कि वजीर तो उनका टाइटिल था दरसल वह उन बचे खुचे चुनिंदा हिंदुओ में से थे जो 1990 में किसी तरह बच गए थे..!!!
उन्होंने इधर उधर देखते हुए दबे सुर में बताया कि वजीर टाइटिल के नाम से वह व परिवार सुरक्षित बचे हुए हैं वर्ना हालत कब दिक़्क़त खड़ी कर दें पता नही..!!!
उनका दबा सुर द कश्मीर फाइल्स में दबे स्वर में भारत माता की जय बोलने के बेहद जीवंत दृश्य रात के आखिरी शो में मेरी आँखों के सामने घूम गया..!!!
फ़िल्म की ताकत यही है कि जो दिखाया दबंगई से दिखाया गंगा जमुना की बनावटी धार से किसी भी दृश्य को न तो धुंधला किया गया और न ही काल्पनिक प्रेम कथा जैसा भुलावा परोसा गया..!!!
चाहे क्रिकेट मैच के शुरुआती दृश्य हो या बलबन की भांति पेड़ से ठोके गए कश्मीरी पंडितों के शवों का दिल दहलाने वाला मध्यांतर हो एक बार भी सबसे आगे की सीट के ठीक पीछे बैठ कर गर्दन झुकाने का अवसर ही नही मिला..!!!
इसके पीछे लाल केम्पस की कथित सांस्कृतिक क्लास का पल्लवी जोशी का मैडम राधिका मेनन का उस अद्भुत अभिनय का सम्मोहन था जिसने बालो पर चश्मा चढ़ाने वाली मोहतरमा प्रोफेसर की कलई खोलने वाली जादुई भूमिका को साकार किया..!!!
दरअसल जो बातूनी लाले फ़िल्म को लेकर जुबाँ पर ताले डाले बैठे है उसके पीछे उनकी बौद्धिक बिरादरी की पोल खुलने की खिसियाहट ज्यादा है यदि राधिका मेनन के मंथरा रोल में पल्लवी जोशी ने जान न डाली होती तो केम्पस वालों के गला ऐसा न रूंधता..अब बिचारे न तो थाली बजा पा रहे औऱ न ताली..!!!
पुष्कर नाथ जी के रोल में अनुपम जी तो अनुपमता से भी आगे निकल गए है तो मिथुन दा का ब्रम्ह दत्त के रूप में जूता टेककर चलकर विष्णु को समझाना उनका मृगया के बाद सबसे यादगार अभिनय है पुनीत इस्सर सहित सभी ने अपनी भूमिकाओं से न्याय किया है..!!!
मप्र के ग्वालियर में जन्मे व भोपाल में पढ़े लिखे निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने साबित कर दिया कि ताशकंद फाइल कोई संजोग नही थी बल्कि उनकी द कश्मीर फाइल्स की शोध वृति के सफल पूर्वाभ्यास की पटकथा थी..!!!
आतंकी के रोल को चिन्मय मंडलेकर ने ख़ूब जिया है तो आरे से चीर कर हत्या का दृश्य दिल दहला देने वाला है अंतिम दृश्य तो अब तक स्तब्ध किये हुए है फ़िल्म में कोई भी कोई भी राजनीतिक पार्टी का कोई जिक्र भले न हो पर मुख्यमंत्री व गृह मंत्री के किरदार सब बयां कर देते है..!!!
फ़िल्म में आतंकी पूरे समय अपने आका के रूप में पाकिस्तान व उसके झंडे की बात करते हैं इंटरव्यू में भी आका का जिक्र होता है इसके बाद भी बॉलीवुड के समीक्षकों व लालमतियो की चुप्पी यह बताती है कि उन्हें पाकिस्तान नाम से मोहब्बत है या वहां छूपे कायर दाऊद का डर सता रहा है..!!!
पूरी फ़िल्म का कमजोर पक्ष युवा विष्णु के रूप में अतुल के कमजोर अभिनय का रहा है जिसे और बेहतर किया जा सकता था बल्कि इस भूमिका के कलाकार के रूप में औऱ वैकल्पिक चुनाव किए जा सकते थे..वैसे एक माह के कम समय मे फतवे के बीच पूरी शूटिंग कर डालना किसी अंचभे से कम नही..खासकर बर्फीली वादियों के बीच रात्रि के सीन फ़िल्म के तकनीकी पक्ष की मजबूती को भी बताते हैं..!!!
तमाम बाधाओं के बीच फ़िल्म दर्शकों के दिल की गहराइयों में अपनी जगह बना रही है जिसे इसलिए भी देखना चाहिए क्योंकि फ़िल्म किसी भी धर्म के खिलाफ नही बल्कि आतंकी अधर्म की उस सच्चाई को उघेड़ती है जिसे सबको जानना जरूरी है ताकि सदियों से पश्चिम से सिमटते आ रहे अखंड भारत को और न सिमटना पड़े..
फिल्म समीक्षक : ब्रजेश त्रिपाठी
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