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एक कार्यक्रम में शिक्षा विभाग के एक आला अधिकारी ने शिक्षकों को सन्देश दिया कि "वे बढ़ा लक्ष्य बना कर, उसे हासिल करने का प्रयास करें।"  सलाह बहुत अच्छी लगती है, लेकिन अगर हाल ही के घटनाक्रम को देखा जाये तो इस नसीहत की सबसे पहले और सबसे ज्यादा जरूरत इन्हीं साहबों को लगती है।  

कहा जाता है शिक्षकों को सबसे ज्यादा तकलीफ रोजाना कक्षाओं में जाने से हो रही है और बच्चों को पढ़ाने  से उनकी तकलीफ असहनीय हो जाती है। उनका पढ़ाने में मन ही नहीं लगता है। इस मुश्किल का इलाज कुछ शिक्षकों ने अपने स्थान पर भाड़े के शिक्षक रखकर कर लिया है।

वहीं कुछ शिक्षकों ने  जोड़तोड़ कर ऐसे स्कूलों में नियुक्ति करा ली है जहां विद्यार्थियों की संख्या से ज्यादा मास्साबों की संख्या हो गयी है। पता चलता है कि ऐसे कई स्कूलों में एक ही विषय के शिक्षक जरूरत से ज्यादा हो गए हैं तो किसी एक विषय के लिए एक शिक्षक भी मौजूद नहीं  है। अंग्रेजी पढ़ाने वाले शिक्षाओं की कमी तो जगजाहिर ही है

शिक्षा विभाग जिन शिक्षकों के चलते अतिशेष शिक्षकों की समस्या से जूझ रहा है । उनमें से अधिकाँश वो लोग हैं जो महज एक सरकारी नौकरी की चाहत में शिक्षक बन गए। ऐसे शिक्षकों का खास मकसद बच्चों को अच्छी शिक्षा देना नहीं बल्कि खुद के लिए अधिक से अधिक सुविधाएँ बटोरना होता है और इसी के चलते ये कभी ग्रामीण क्षेत्रों में जाने से बचने के लिए शहर में ही पदस्थापना पाने के जुगत में लगे रहते हैं 

जो शिक्षक ज्यादा ही तिकड़मी हैं उन्होंने तो खुद को प्रतिनियुक्तियों की आड़ में पदस्थापना हासिल कर जनप्रतिनिधियों के कार्यालयों को ही अपना स्थाई घर-ऑफिस बना लिया है। इस फन में माहिर कुछ मास्साबों ने तो दशकों से स्कूलों का मुंह तक नहीं देखा है। 

कई शिक्षक तो यह भी भूल गए है की वे किस विषय को पढ़ाने  के लिए भर्ती हुए थे। बस अपने आकाओं की जी हुजूरी में लोट-पोट हो रहे हैं। हाँ यहाँ रहकर उन्होंने खुद को अन्य विभाग के अधिकारीयों को अपने आकाओं के आड़ में रोआब दिखाकर लोगों के काम बनाने-बिगाड़ने के खेल में पारंगत जरूर कर लिया है

ऐसे शिक्षकों की बिरादरी लगातार बढ़ती जा रही है और ताकतवर भी होती जा रही है। इतना ही अब तो इसी बिरादरी के ही के ही कुछ अति होशियार सेवादार और तिकड़म बाज़ नुमाइंदे अब जिला स्तर की कमान भी सँभालने लगे हैं। जिससे विभाग में व्यवस्था बनाने का काम बेहद आला-दर्जे? का होता जा रहा है

बताया जा रह है शिक्षक कक्षाओं में कैसा पढ़ाते हैं ? बच्चों को उनकी बातें कितनी समझ में आतीं हैं। इसके मूल्यांकन की  अगर कोई व्यवस्था है भी तो वह नदारद ही नजर आ रही है । स्कूलों के इम्तिहानों के नतीजे  बहुत हद तक शिक्षकों की सक्रियता की कसौटी मानी जा सकती है। 

लेकिन यह भी माना जाने लगा है कि  राज्य और केंद्र स्तर के श्रेष्ठ शिक्षक होने के "सम्मान और पुरस्कार"  हासिल करने में पढ़ाने का हुनर अपने अहमियत खोता जा रहा है। चर्चाओं तो ऐसी भी होती रहतीं हैं के ऐसे तमगे हासिल करने वालों में ज्यादातर तो वो लोग होते हैं जो कक्षाओं की देहरी तक पार नहीं करते हैं

ऐसे विध्न संतोषी शिक्षकों की  बिरादरी के लगातार बढ़ते जाने के बावजूद भी अगर शिक्षा विभाग में काम हो रहा है तो इस बात का श्रेय निसंदेह उन शिक्षकों को जाता है जो पूरे समर्पण के साथ बच्चों के भविष्य निर्माण में लगे हुए हैं। ये वही शिक्षक हैं जो अच्छी शिक्षक के लिए दिए जाने वाले सम्मान और पुरस्कारों के सच्चे हकदार होते हैं और इन शिक्षकों की अच्छाइयां भी कभी-कभी ही मीडिया के सुर्ख़ियों में आ पाती हैं

अब शिक्षको की इस बिरादरी की मनमानियों से निपटने और उन्हें रास्ते पर लाने की कवायद को भला कौन बड़ा लक्ष्य नहीं मानेगा? इस बड़े लक्ष्य को हासिल करने में कितने मशक्कत करनी पड़ेगी इसका भी मोटा-मोटा अंदाजा लोग सहज ही लगा सकते हैं। 

तो अच्छा होगा विभाग के आला अधिकार खुद के लिए इस बड़े लक्ष्य को साधने का जिम्मा लें लें और इस चुनौतीपूर्ण काम को पूरा कर मिसाल पेश करें । तब उनके महकमे के लोग उनकी नसीहत को भली-भाँती समझ  जायेंगे । वर्ना लोग तो यह ही कहेंगे" पर उपदेश कुशल बहुतेरे"|

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